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कांग्रेस और इसकी गुलामी का ही परिणाम है देश में पनपी समस्याएं

राजनीति
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बम्बई, कांग्रेस अधिवेशन और अध्यक्षीय भाषण. ये तीन शब्द ऐसे है जिन्होंने पहली बार कांग्रेस में किसी व्यक्ति विशेष को केंद्रित कर सर्वोच्च या सर्वोपरि मान लेना वाली एक नकारात्मक व्यवस्था को जन्म दिया. और अपने इसी स्वभाव के चलते देश के विकास को भी प्रभावित किया. इस बम्बई के अधिवेशन में डब्लू. सी. बनर्जी ने अपने पहले अध्यक्षीय भाषण में कहा कि “अंग्रेजी राज की कृपापूर्ण घनी छाँव से देश को अनेक लाभ प्राप्त हुए” हालाँकि डब्लू.सी. बनर्जी के इस वक्तव्य के क्या मायने हो सकते है, यह कहना थोडा मुश्किल है लेकिन इस अधिवेशन में एक बात और गौर करने वाली रही की इस अधिवेशन की शुरुआत ही इंग्लैंड की महारानी की प्रार्थना से हुई. इस अधिवेशन में इंग्लैंड की महारानी की दीर्घायु और स्वस्थ रहने की कामना की गयी. अब इन बातों का अर्थ निकलना थोडा आसान होगा. अब शायद कहना थोडा सरल है कि वर्तमान कांग्रेस के स्वरुप और डब्लू. सी. बनर्जी वाली शुरूआती कांग्रेस में कोई ज्यादा ख़ास फर्क नहीं है. या फिर कांग्रेस कभी अपनी गुलामी वाली मानसिकता से बाहर ही नहीं  निकल पायी  है. और इसी मानसिकता ने ही आज देश को पीछे धकेला है.

अपने नेता के प्रति आस्था रखना एक अच्छी परम्परा है, ऐसा हम महात्मा गाँधी के नेतृत्व में हुए तमाम आन्दोलनों में देख या पढ़ चुके है. इस नेतृत्व ने देश की नयी पहचान दी और अंग्रेजों से देश को मुक्त कराने में योगदान दिया. इस नेतृत्व ने सकारात्मक नतीजे पेश किये. लेकिन उस आस्था को गुलामी में परिवर्तित कर देना समस्याओं को जन्म देता है. और इसी कांग्रेसी व्यवस्था ने देश को विकास की राह से भटका दिया है. आजकल कहा जाता है की जो 10 जनपथ का करीबी है उसका भविष्य उज्जवल रहेगा. और फिर अपने नेता का करीबी होना और बदले मनचाहा विभाग मिलना और फिर उसका दुरप्रयोग होना अब आम बात बन गयी है. एक समय था जब देश आज़ाद हुआ तो महात्मा गाँधी के कहने पर जवाहरलाल नेहरु को तीन गैर कांग्रेसी नेताओं को अपनी कैबिनेट में शामिल करना पड़ा था लेकिन आज वही नेता केबिनेट में शामिल होता है जिसके पास पोर्टफोलियों की जगह “करीबी” होने का अपार क्षमता हो.

इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी की मृत्यु के बाद के कुछ सालों तक कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार से दूर रहा. हालाँकि आजादी के बाद भी कई बार ऐसे मौके आये जब कांग्रेस का नेतृत्व गाँधी-नेहरु परिवार के हाथों में ना होकर किसी और के हाथों में था. लेकिन बावजूद इसके उस दौरान भी गाँधी-नेहरु खानदान वर्चस्व रहता था. देवकांत बरुआ का इंदिरा गांधी के सम्मान में कहा गया सुप्रसिद्ध कथन “तेरे नाम की जय, तेरे काम की जय, तेरी सुबह जय, तेरी शाम को जय, इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया” आज भी लोगो के जेहन में बसा हुआ है. साफ़ है की कैसे एक लोकतांत्रिक देश में एक राजनीतिक दल की बागडोर एक व्यक्ति तक सीमित हो जाती है और बाकी नेतागण उस व्यक्ति विशेष के गुणगान में व्यस्त रहते है. और यह गुणगान इस हद्द तक होता है की उसके लिए देश का प्रभुत्ता से बढ़कर अपने नेता की प्रभुत्ता सर्वोपरि हो जाती है.

अभी रॉबर्ट वाड्रा पर लगे आरोपों के दौरान पूरा कांग्रेसी खेमा वाड्रा का बचाव करने में इतना व्यस्त हो गया था की एक तो खुद वाड्रा को अपनी सफाई पेश करने की जरुरत नहीं पड़ी और दूसरा कांग्रेसी नेताओं के लिए सबसे महत्वपूर्ण काम एक आरोपी को किसी भी सूरत में बचाना भर रह गया. उसके कई कांग्रेसी नेताओं को ऐसे वक्तव्य तक देने पड़े जिनसे साफ़ पता चलता है की उन नेताओं ने अपने “नेता” को खुश करने के लिए दिए हो. पिछले 2 सालों में भ्रष्टाचार के जितने मामले सामने आये उनमे अधिकतर मामलों में किसी भी घोटालेबाज नेता पर कोई कार्यवाही तक नहीं हुई उल्टा कई नेता तो ऐसे थे जिनका ऊपर आरोप लगे लेकिन उन्हें “करीबी” होने का पूरा फायदा मिला और उनका प्रमोशन तक हो गया.

इससे पहले 90 के दशक के मध्य में कांग्रेस में जब फिर से नेतृत्व का संकट गहराने लगा तो “सोनिया  लाओ देश बचाओं” के नारे के साथ कांग्रेस की कमान सोनिया गाँधी ने संभाल ली. वतर्मान में कांग्रेस का नेतृत्व सोनिया गाँधी के हाथों में है. सोनिया गाँधी तो आ गयी  लेकिन देश बचा की नहीं इसका जवाब आये दिन सामने आ रहे घोटालें देते रहते है. खैर अब सोनिया गाँधी के बाद कांग्रेस की कमान गाँधी-नेहरू की पांचवी पीढ़ी के राहुल गाँधी के लिए सुरक्षित करने की बाते सामने आने लगी है. अब आगे ये गुलामी और परातंत्र के भावना कहाँ तक पहुंचेगी ये तो साफ़ है लेकिन इससे पहले ये जरुरी है इस प्रकार की राजनीति का अंत जल्द से जल्द हो. सार्वजनिक जीवन में किसी भी नेता के लिए जरुरी है की उसका महत्वपूर्ण काम देश की भलाई से ही जुड़ा हुआ हो ना की अपने नेता की भलाई के लिए.

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